सरपुंखा - (Tephrosia purpurea)एक बहुपयोगी आयुर्वेदिक औषधी

सरपुंखा राजस्थान के थार मरुस्थल में पायी जाने वाली एक प्रमुख आयुर्वेदिक औषध पादप है। वैसे सरपुंखा का पौधा समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। हिमालय पर्वतीय क्षैत्र में 2000 मीटर की ऊंचाई तक इसकी उपस्थिति पायी गयी है। पुष्प भेद से यह दो प्रकार की होती है- 1- श्वेत सरपुंखा 2- रक्त सरपुंखा प्राय शरपुंखा के नाम से लाल या बैगंनी रंग के फूल वाली वनस्पति का ग्रहण एवं प्रयोग किया जाता है। चरकसंहिता में शरपुंखा का उल्लेख नहीं हैं। सुश्रुत-संहिता के अलर्क-विष की चिकित्सा में धतूरे के साथ शरपुंखा मूल के प्रयोग का वर्णन प्राप्त होता है। इसके पत्रकों को तोड़ने से, यह बाण के अग्र भाग के समान टूटते हैं, इसलिए इसे शरपुंखा कहते हैं।


 
नामकरण 
वानस्पतिकक नाम : Tephrosia purpurea (टेफ्रोसिया परपुरिया) 
कुल : Fabaceae (फैबेसी) 
अंग्रेज़ी नाम : Purple tephrosia (पर्पल टेफ्रोसिया) 
संस्कृत-शरपुंखा , प्लीहशत्रु, कण्ठपुंखिका, श्वेतपुंखा, कंठालु,              कालिका, वाणपुंखा, नीलीवृक्षाकृति
हिन्दी-शरपुंखा, सरफोंका, सरफोका 
उर्दू-सरभूखा (Sarabhuka) 
उड़िया- कोलोथियापोखा (Kolothiyapokha), मोहिसियाको             (Mohisiyako)
कन्नड़-फंकी (Fanki), एम्पलि (Empali) 
गुजराती-शरपंखो (Sharpankho), उन्पंखो (Unpankho) तमिल-कोलिंगी (Kolingi), पावगी (Pavagi) 
तेलुगु-विपलि (Vipali), लेल्लवेंपल्लि (Lellevampali), मलु           बेम्पली (Malu bempali)
बंगाली-बननील गाछ (Bannil gachh) 
नेपाली-कांडे साकिनु (Kande sakhinu) 
पंजाबी-झोझरु (Jhojhru) 
मलयालम-कोलिन्नील (Kolinnil), कोझेन्जील (Kojhenjil) मराठी-उन्हाली (Unhali) 
अंग्रेजी-वाईल्ड इण्डिगो (Wild indigo), फिश पॉयजन ट्री                   (Fish poison tree), वोगेल टेफ्रोसिया (Vogel                    tephrosia).            
   आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव 
शरपुंखा कफ वातशामक तथा प्लीहोदर नाशक है। इसका-बाह्यलेप शोथहर, कुष्ठघ्न, विषघ्न, जन्तुघ्न, व्रणरोपक, रक्तरोधक और दन्त्य है। आंतरिक प्रयोग में यह दीपक, अनुलोमक, पित्तसारक, कृमिघ्न, प्लीहघ्न, रक्तशोधक, कफ निसारक, मूत्रल, गर्भाशय-उत्तेजक, कुष्ठघ्न, ज्वरघ्न व विषघ्न है। श्वेत शरपुंखा अधिक गुणकारी और रसायन है। 

औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
  दंतरोग-
20-40 मिली शरपुंखा मूल क्वाथ में हरड़ की लुग्दी 10 ग्राम डालकर 100 मिली तेल में पकाएं, जब तेल का जलीयांश जल जाय तब उसे उतारकर ठण्डा होने पर रूई के फोहे में लगाकर दांतों में लगाने से दंतशूल का शमन होता है। दंत रोगों में इसके मूल को कूटकर दुखते दांत के नीचे रखने से भी बहुत लाभ होता है।
 गण्डमाला-
शरपुंखा की मूल को पानी में घिसकर गुनगुना करके लगाने से गण्डमाला में लाभ होता है। कास-खांसी में इसके सूखे मूल का धुआं सूंघने से लाभ होता है। 
श्वास रोग-
2 ग्राम शरपुंखा लवण को मधु के साथ दिन में तीन बार सेवन कराने से श्वास रोग में लाभ होता है। 
गुल्मरोग-
शरपुंखा क्षार में समान-भाग हरड़ का चूर्ण मिलाकर भोजन के बाद सुबह-शाम देने से गुल्म रोग में लाभ होता है। 
मन्दाग्नि-
शरपुंखा की 10 ग्राम कड़वी जड़ को 200 मिली पानी में उबालकर सुबह-शाम पिलाने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। संग्रहणी-
शरपुंखा के 20 मिली क्वाथ में 2 ग्राम सोंठ डालकर प्रात सायं पीने से संग्रहणी में लाभ होता है। 
अफारा-
10-20 मिली शरपुंखा क्वाथ में 250-500 मिग्रा भुनी हींग मिलाकर प्रात सायं पिलाने से अफारा में लाभ होता है। उदरशूल-
10 ग्राम शरपुंखा मूल छाल को 2-3 नग काली मिर्च के साथ पीसकर गोली बनाकर दिन में तीन बार देने से दुसाध्य उदरशूल का शमन होता है। 
अतिसार-
शरपुंखा के 10-30 मिली क्वाथ में 1-2 नग लौंग डालकर दिन में 3-4 बार पीने से अतिसार का शमन होता है। 
उदर कृमि-
शरपुंखा के 10-30 मिली क्वाथ में 2 ग्राम वायविडंग का चूर्ण मिलाकर रात में सोते समय पिलाने से बच्चों के पेट के कीड़े नष्ट हो जाते हैं। 1-2 ग्राम बीज चूर्ण को उष्ण जल के साथ सेवन कराने से बच्चों के पेट में होने वाले कीड़ों का शमन होता है। विसूचिका-
शरपुंखा की जड़ों को पीसकर दो ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम पिलाने से हैजे में लाभ होता है। 
उदरशूल-
5 ग्राम शरपुंखा मूल छाल को समभाग काली मिर्च के साथ पीसकर 250 मिग्रा की गोली बनाकर 1-1 गोली प्रातसायं खाने से उदरशूल का शमन होता है। 
उदरकृमि-
शरपुंखा को पीसकर उदर पर लेप करने से उदरकृमियों का निसरण होता है। 
 बवासीर-
शरपुंखा के पत्ते और भांग के पत्तों को समान मात्रा में पीसकर, उनकी लुग्दी बनाकर, गुदा पर बांधने से रक्तार्श (खूनी बवासीर) में लाभ होता है। 
प्लीहावृद्धि-
10 ग्राम शरपुंखा मूल कल्क को 250 मिली छाछ के साथ दिन में दो बार पिलाने से बढ़ी हुई प्लीहा कम हो जाती है। यकृत् एवं प्लीहावृद्धि में इसके मूल को दातुन की तरह चबाकर इसका रस अन्दर उदर में उतारने से बहुत लाभ होता है। शरपुंखा के पादप को जड़ सहित उखाड़कर छाया में सुखाकर चूर्ण बनाकर 3 से 5 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करने से प्लीहा रोग ठीक हो जाता है। 10 से 20 ग्राम शरपुंखा मूल कल्क में 2 ग्राम हरड़ चूर्ण मिलाकर एक गिलास मट्ठे के साथ प्रात सायं सेवन करने से यकृत् तथा प्लीहा विकारों का शमन होता है। 
मूत्रकृच्छ्र-
शरपुंखा के 20-25 पत्तों को पानी के साथ पीसकर, उनमें 3-4 नग काली मिर्च डालकर पिलाने से मूत्रकृच्छ्र में बहुत लाभ होता है। 
चर्मरोग-
शरपुंखा बीज तैल को कंडू आदि दुसह्य चर्म रोगों पर लगाने से लाभ होता है। 
कुष्ठ-
10-20 मिली शरपुंखा पत्र-स्वरस को दिन में दो तीन बार पीने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है। 
व्रण-
शरपुंखा की 15-20 ग्राम मूल को जल में पीसकर, उसमें 2 चम्मच मधु मिलाकर घाव पर लेप करने से कठिनता से भरने वाले घाव भी जल्दी भर जाते हैं। शरपुंखा, काकजंघा या लज्जालु इनमें से किसी एक को आवश्यकतानुसार लेकर, पीसकर लेप कर देने से व्रण का रोपण होता है। 
फोड़े-फून्सी-
शरपुंखे के 10-20 मिली क्वाथ में 2 चम्मच मधु मिलाकर खाली पेट सुबह-शाम पिलाने से रक्त का शोधन होता है और शरीर के फोड़े-फून्सी मिट जाते हैं। शत्राघात-शत्राघातजन्य क्षत में दण्डोत्पल स्वरस भर कर ऊपर से दाँतों से चबाकर निकाला हुआ शरपुंखा स्वरस भर कर कपड़े की पट्टी बांधने से अथवा शरपुंखा मूल कल्क का लेप करने से घाव जल्दी भर जाता है। व्रण-
शरपुंखा मूल को पीसकर, इसमें मधु मिलाकर, व्रण पर लगाने से शीघ्र व्रण का रोपण हो जाता है। 
अपची-
शरपुंखा मूल को चावल के धोवन से पीसकर निर्मित कल्क का नस्य तथा प्रलेप करने से दुष्ट व्रण, अपची, विष प्रभाव तथा कृमि में लाभ होता है। 
कुष्ठ-
शरपुंखा पत्र-स्वरस (5-10 मिली) को दिन में दो-तीन बार पीने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है। 
क्षत-
1-3 ग्राम शरपुंखा मूल चूर्ण को तण्डलोदक के साथ सेवन करने से क्षतजन्य रक्तस्राव का स्तम्भन होता है। 
अर्बुद-
अर्बुद तथा अपची पर सर्वप्रथम जोंक लगाकर, रक्त निकल जाने के पश्चात् शरपुंखा मूल को चावल के धोवन के साथ पीसकर लेप करने से अर्बुद तथा अपची में लाभ होता है। 
दाह-
शरपुंखा के 10-20 ग्राम बीजों को एक गिलास ठंडे पानी में भिगोकर मसल कर, छानकर पिलाने से शरीर की दाह तथा ज्वर का शमन होता है। 
रक्तज विकार-
15-30 मिली शरपुंखा मूल क्वाथ में मधु मिलाकर पीने से रक्तज विकारों का शमन होता है। 
विष-
2-4 ग्राम शरपुंखा बीज चूर्ण का सेवन तक्र के साथ करने से मूषक विष दंश जन्य विषाक्त प्रभावों का शमन होता है। प्रयोज्याङ्ग :पञ्चाङ्ग, मूल, पत्र, फली एवं बीज। मात्रा : चूर्ण 3-6 ग्राम, स्वरस 10-20 मिली, क्षारीय सत्त् 1-3 ग्राम।

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सरपुंखा का पौधा


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